भोपाल। भारत में हर साल 87 मिलियन टन फसल के अवशेषों को जलाया जाता है। यह हमारे कई पड़ोसी देशों के कुल कृषि अपशिष्ट उत्पादन से भी अधिक है। देश के कुल कृषि अवशेषों के उत्सर्जन में 97 प्रतिशत योगदान धान, गेहूं और मक्के की फसल जलाने से होता है, जिसमें धान के अवशेषों का योगदान सबसे अधिक 55 प्रतिशत है। पिछले दशक में ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में 75 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जक राज्यों में पंजाब और मध्यप्रदेश क्रमश: पहले और दूसरे स्थान पर है। यह तथ्य भारतीय विज्ञान शिक्षा एवं अनुसंधान संस्थान भोपाल (आइसर), अंतरराष्ट्रीय मक्का व गेहूं सुधार केंद्र हैदराबाद और अमेरिका के मिशिगन विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं के संयुक्त अध्ययन में सामने आए है। इस अध्ययन के लिए विज्ञानियों ने एक उपग्रह आधारित तकनीक को विकसित किया है जो भारत में जलाए जाने वाले कृषि अवशेषों से उत्पन्न होने वाली ग्रीन हाउस गैसों की जानकारी प्रदान करती है।
उपग्रह तकनीक ने बदली धारणा
इस अध्ययन की जरूरत इसलिए पड़ी क्योंकि पूर्व अध्ययनों में यह माना गया था कि अगर खेती का उत्पादन ज्यादा होगा तो ज्यादा अवशेष जलाए जाएंगे, इसलिए अधिक उत्पादन करने वाले राज्यों में अधिक कृषि अवशेष जलाए जाने का अनुमान लगाया गया। इस अध्ययन में कृषि अवशेष जलाए जाने की सटीक जानकारी के लिए उपग्रह का इस्तेमाल किया गया। उपग्रह से अवशेष जलाए जाने वाले खेत नहीं जाने वाले खेतों से अलग दिखते हैं। इससे यह पता चला कि यह मानना सही नहीं है कि जिन राज्यों में ज्यादा खेती होती है केवल वहीं ज्यादा कृषि अवशेष जलाए जाते हैं। अध्ययन से स्पष्ट हुुआ कि उत्तरप्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र आदि कई उत्पादक राज्य हैं, लेकिन इन राज्यों में कृषि अवशेष लगभग नहीं के बराबर जलाए जाते हैं। उपग्रह के उपयोग से इसे अच्छे से चिन्हित किया जा सका।
मप्र कृषि अवशेष जलाने वाले अग्रणी राज्यों में
विज्ञानियों के अनुसार मप्र में कुछ सालों में गेहूं की फसल अधिक उगाई जा रही है। इस कारण यहां पर कृषि अवशेष जाने की प्रक्रिया भी तेजी से बढ़ी है। यहां के किसान भी कृषि अवशेष हटाने के लिए उनमें आग लगाने का काम कर रहे हैं। मप्र में कई जिलों में भी अध्ययन किया गया। इसमें रायसेन, होशंगाबाद व उज्जैन जिले में अधिक कृषि अवशेष जलाए जा रहे हैं।
अध्ययन का निष्कर्ष
इस अध्ययन में पंजाब को सबसे अधिक ग्रीनहाउस उत्सर्जक क्षेत्र बताया गया है। वर्ष 2020 में इसके कुल कृषि क्षेत्र में से 27 प्रतिशत में कृषि अवशेष को जलाया गया। वहीं मध्यप्रदेश का स्थान दूसरा है जहां करीब 22 प्रतिशत अवशेष जलाए गए। वहीं वर्ष 2014-2015 में प्रभावी रूप से नीति क्रियान्वयन के कारण फसलों के अवशेषों के जलने में प्रारंभिक रूप से कमी आई थी, जबकि वर्ष 2016 में फिर से इसमें वृद्धि देखी गई है।
ढाई साल तक किया अध्ययन
डा. धान्यलक्ष्मी के साथ मोनिश देशपांडे, नीतीश कुमार, अर्पणा रवि,विजेश वि कृष्णा व मेहा जैन ने सहयोग दिया है। विज्ञानियों ने भारत के आठ उत्तर-पूर्वी राज्यों को छोड़कर बाकी सभी राज्यों में करीब ढाई साल तक अध्ययन किया।
ऐसे कर सकते हैं सुधार
– खेती के तकनीक में सुधार लाकर इससे बच सकते हैं।
– शून्य जुताई का उपयोग कर कृषि अवशेष का उपयोग खेतों में ही करके खाद बनाया जा सकता है।
– अवशेषों से जैव ईंधन के उत्पादन को बढ़ावा देना आदि शामिल है।
– कुछ राज्यों में इस तकनीक का उपयोग कर कृषि अवशेष जलाने में कमी आई है।
– किसानों को प्रशिक्षित कर तकनीक का उपयोग कर कृषि अवशेष को जलाने से बच सकते हैं।
– यह तकनीक इस गंभीर पर्यावरणीय संकट से निपटने के लिए क्षेत्र-विशेष के लिए रणनीतियों और नीतिगत हस्तक्षेपों को तैयार करने के लिए प्रमाण आधारित समाधान प्रदान कर सकती है
भारत में हर साल 87 मिलियन टन कृषि अवशेष जलाए जाते हैं। इससे पर्यावरण प्रदूषण जैसी गंभीर समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं। इसे रोकने के उपाय करने होंगे।
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