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मध्य प्रदेश भाजपा में ओबीसी नेताओं की कतार, कांग्रेस अब जागी

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भोपाल। मध्य प्रदेश की राजनीति में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) का बड़ा महत्व है। यहां बड़ी आबादी ओबीसी से आती है। इस वर्ग को अपनी ओर करने के लिए कांग्रेस ने 27 प्रतिशत ओबीसी आरक्षण का दांव चला लेकिन सफल नहीं हो सका। भाजपा ने इसे जमकर भुनाया, कांग्रेस को घेरा और नए नेतृत्व को आगे भी बढ़ाया। प्रदेश में उमा भारती, बाबूलाल गौर और शिवराज सिंह चौहान को मुख्यमंत्री बनाया तो भूपेंद्र सिंह, प्रदीप पटेल, कृष्णा गौर सहित अन्य नेताओं को आगे बढ़ाया लेकिन कांग्रेस में ओबीसी नेताओं का टोटा है। विंध्य से आने वाले राजमणि पटेल को राज्यसभा भेजकर आगे बढ़ाने का प्रयास किया लेकिन वे भी प्रभाव नहीं छोड़ पाए।

पूर्व प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अरुण यादव और जीतू पटवारी पार्टी राजनीति के शिकार हो गए तो अब कांग्रेस ने पूर्व मंत्री कमलेश्वर पटेल को विंध्य में आगे किया है। कद बढ़ाने के लिए एआइसीसी का सदस्य बनाया है। विंध्य में अब तक अर्जुन सिंह या श्रीनिवास तिवारी जैसे सवर्ण नेता ही सियासत में आगे रहे हैं। यह पहला अवसर है जब कांग्रेस ने विंध्य से सवर्ण को पीछे कर ओबीसी को आगे बढ़ाया है। मोदी सरकार द्वारा अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) आरक्षण (संशोधन) विधेयक संसद के दोनों सदनों से पारित कराने के बाद से ही इस पर सियासत जारी है।

मध्य प्रदेश में कांग्रेस के पास गिने-चुने चेहरे

मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में भाजपा के मुकाबले कांग्रेस कमजोर पड़ती जा रही है। यहां मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान खुद ओबीसी से आते हैं, तो उनकी 34 सदस्यीय कैबिनेट में 12 मंत्री ओबीसी से हैं, जबकि कमल नाथ सरकार की 29 सदस्यीय कैबिनेट में ये आंकड़ा सात था। केंद्र में भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ओबीसी से हैं, उनकी कैबिनेट में 27 मंत्री इसी वर्ग से आते हैं। मध्य प्रदेश में कांग्रेस के साथ मुश्किल है कि उसके पास ओबीसी वर्ग से गिने-चुने चेहरे हैं, लेकिन आपसी खींचतान में वह संगठन में ही अस्तित्व का संघर्ष करते नजर आ रहे हैं। प्रदेश की सियासत में अब जातिगत समीकरणों से सत्ता हासिल करने की प्रवृत्ति देखी जा रही है।

अरुण यादव की उपेक्षा

तीसरे दल की मौजूदगी न होने से भाजपा-कांग्रेस धर्म, जाति और वर्ग आधारित वोट बैंक मजबूत करने की कोशिश कर रही हैं। प्रदेश की कुल आबादी में ओबीसी में शामिल विभिन्न जातियों की हिस्सेदारी 50 फीसद से अधिक बताई जाती है। संगठन के स्तर पर भी देखें तो कांग्रेस में पूर्व प्रदेश अध्यक्ष अरुण यादव ओबीसी से आते हैं, लेकिन उनकी उपेक्षा का क्रम जारी है।

पूर्व मंत्री जीतू पटवारी भी पार्टी में हाशिए पर हैं। सचिन यादव, हर्ष यादव, सुखदेव पांसे जैसे पूर्व मंत्री भी सियासी परिदृश्य में कमजोर दिखते हैं। इसके विपरीत भाजपा में पिछड़ा वर्ग के नेताओं की कतार है। सीएम शिवराज के साथ नगरीय विकास और आवास मंत्री भूपेंद्र सिंह सहित कई दिग्गज मंत्री ओबीसी के बीच पैठ मजबूत करने में लगे हैं।

विंध्य में बेड़ा पार करा पाने पर संशय

अब कांग्रेस को ओबीसी नेताओं की कमी का अहसास हुआ है। इसी रणनीति के चलते कांग्रेस ने समाजवादियों का गढ़ कहे जाने वाले विंध्य में कमलेश्वर पटेल को आगे बढ़ाया है। विंध्य की राजनीति कई दशकों तक अर्जुन सिंह और श्रीनिवास तिवारी के इर्द-गिर्द ही रही है। दोनों ही नेता कांग्रेस में रहते हुए भी एक-दूसरे के विपरीत थे। अब कमलेश्वर पटेल को एआइसीसी में स्थान देने के मायनों की तलाश हो रही है। अभी तक विंध्य से ब्राह्मण, क्षत्रिय ही राजनीति करते आए हैं। यह धारणा वास्तव में अर्जुन सिंह और श्रीनिवास तिवारी को लेकर है।

यह भी सही है कि प्रजा सोशलिस्ट पार्टी से लेकर कांग्रेस के कार्यकाल तक इन्हीं का बोलबाला था। अब कमलेश्वर को तो कांग्रेस ने आगे बढ़ाया लेकिन यह एक बात चिंताजनक है कि पार्टी में विंध्य को लेकर कारगर रणनीति नहीं है। विंध्य का सामान्य सा राजनीतिक कार्यकर्ता भी जानता है कि कमलेश्वर का जनाधार कांग्रेस का बेड़ा पार नहीं करेगा। बल्कि सवर्ण नेताओं से कमलेश्वर पटेल की खींचतान इस बार वोटकटवा राजनीति के तहत दोनों को न डुबो दे।

कारण भाजपा सजग ही नहीं बल्कि एक-एक कदम साध कर चल रही है। उसके पास अमूमन हर जिले में प्रभावी ठाकुर, ब्राह्मण नेता तो हैं ही, बल्कि पिछड़ा, अन्य पिछड़ा, अनुसूचित जाति, जनजाति के सक्षम नेता भी हैं। विंध्य में पिछले चुनाव परिणाम के आधार पर अधिक आत्मविश्वास और पलड़े के असंतुलन से भाजपा को भी सचेत रहना होगा। बसपा अभी मरी नहीं है।

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