उज्जैन। धर्मधानी उज्जैन में दुर्ग व द्वार की परंपरा छठी शताब्दी ईसा पूर्व की है। इसके प्रमाण साहित्य में मिलते हैं। राजा चंद्र प्रदोत, सम्राट अशोक, सम्राट विक्रमादित्य के काल में भी यहां अनेक द्वार बनाए गए राजा भोज ने एक हजार साल पहले चौबीस खंभा द्वार का निर्माण कराया था। प्राचीन काल में इसी द्वार से होकर भक्त महाकाल मंदिर जाया करते थे।
मध्यकाल में भी राजा महाराजाओं ने अनेक द्वार का निर्माण कराया, जो आज भी मौजूद हैं। पुराविद डॉ. रमण सोलंकी बताते हैं उज्जैन में छठी शताब्दी पूर्व से नगरीय सभ्यता के साहित्यिक प्रमाण प्राप्त होते हैं। यह नगरी भव्य, सुंदर तथा व्यापार व्यवसाय का प्रमुख केंद्र रही है।
भव्य द्वारों पर होती थी देवी-देवताओं की स्थापना
अलग-अलग कालखंड में यह नगरी न्यायप्रिय व विद्वान शासकों की प्रिय रही है। राजा महाराजाओं द्वारा नगर की सुरक्षा के लिए भव्य परकोटे (दीवार) व नगर प्रवेश द्वारों का निर्माण कराया गया। भव्य द्वारों पर देवी-देवताओं की स्थापना भी कि जाती थी, जो व्याधियों से नगर की रक्षा करते थे।
समय-समय पर इनके पूजन का विधान था। चौबीस खंबा द्वार पर माता महामाया व महालया विराजित हैं। शारदीय नवरात्र की महाअष्टमी पर यहां नगर की सुख समृद्धि के लिए आज भी शासन की ओर से पूजा की जाती है। देवी को मदिरा का भोग लगाया जाता है, इसके बाद शहर के 40 से अधिक देवी व भैरव मंदिरों में पूजा अर्चना होती है।
भव्य व मनोरम महाकाल द्वार
महाकाल मंदिर के उत्तर में महाकाल द्वार स्थित है। महाकाल दर्शन करने आने वाले श्रद्धालु इसकी भव्यता देखकर चकित रह जाते हैं। इस द्वार का निर्माण मध्यकाल में हुआ है। द्वार के दोनों ओर भगवान गणेश की मूर्तियां विराजित हैं। मान्यता है शिप्रा तट की ओर से आने वाले भक्त इसी द्वार से महाकाल मंदिर आते थे।
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