इंदौर। भागवत कथा नहीं, भारत भूमि का धर्म भी है। केवल पूजा-पाठ कर लेने से ही धर्म-कर्म नहीं हो जाता। धर्म के साथ सदगुणों और संस्कारों को भी आत्मसात करना होगा। जब तक हमारे अंतर्मन में नर में नारायण के दर्शन के भाव नहीं आएंगे, हमारी कथा भागवत, पूजा और तीर्थ यात्रा भी अधूरी ही रहेगी। भगवान भोग के नहीं, भाव के भूखे है। हमारे कर्मों में सदाचार, संस्कार और परमार्थ का चिंतन ही सच्चा भागवत धर्म है।
यह बात भागवताचार्य पं. शुकदेव महाराज ने बक्षी बाग कालोनी में कही। वे श्रीमद भागवत ज्ञान यज्ञ में कृष्ण-सुदामा मैत्री प्रसंग संबोधित कर रहे थे। कथा में सुदामा और कृष्ण की मैत्री का भावपूर्ण जीवंत उत्सव देख कर अनेक भक्तों की आंखे छलछला उठी।
पं. शुकदेव महाराज ने कहा कि कृष्ण और सुदामा की मित्रता इसलिए भी इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों में दर्ज है कि दोनों के बीच कोई स्वार्थ नहीं था। जहां स्वार्थ होता है, वहां मित्रता ज्यादा दिनों तक नहीं टिकती। संसार के रिश्तें समुद्र की लहरों जैसे ऊपर-नीचे होते रहते हैं। कृष्ण राजा थे और सुदामा प्रजा। कृष्ण सुदामा के बीच मैत्री का यह प्रसंग भारतीय पुराणों का सबसे श्रेष्ठ उदाहरण है।
भागवत का पहला सूत्र यहीं हैं कि हम बहुत कम समय के लिए मिले इस जीवन में संतुष्ट और प्रसन्न रहने का पुरुषार्थ करें और धर्म सभा के साथ गृह सभा की जिम्मेदारी भी निभाएं। धर्म का सच्चा स्वरूप यहीं है कि हम परमार्थ, सद्भाव, अहिंसा एवं सहिष्णुता का विवेकपूर्ण इस्तेमाल करें ।
Comments are closed, but trackbacks and pingbacks are open.