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मंगलवार को वामन जयंती, पूजा के समय करें इस स्तोत्र का पाठ

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नमस्ते लोकनाथाय परमज्ञानरूपिणे ।

सद्भक्तजनवात्सल्यशीलिने मङ्गलात्मने ॥

यस्यावताररूपाणि ह्यर्चयन्ति मुनीश्वराः ।

तमादिपुरुषं देवं नमामीष्टार्थसिद्धये ॥

यं न जानन्ति श्रुतयो यं न जायन्ति सूरयः ।

तं नमामि जगद्धेतुं मायिनं तममायिनम् ॥

यस्य़ावलोकनं चित्रं मायोपद्रववारणं ।

जगद्रूपं जगत्पालं तं वन्दे पद्मजाधवम् ॥

यो देवस्त्यक्तसङ्गानां शान्तानां करुणार्णवः ।

करोति ह्यात्मना सङ्गं तं वन्दे सङ्गवर्जितम् ॥

यत्पादाब्जजलक्लिन्नसेवारञ्जितमस्तकाः ।

अवापुः परमां सिद्धिं तं वन्दे सर्ववन्दितम् ॥

यज्ञेश्वरं यज्ञभुजं यज्ञकर्मसुनिष्ठितं ।

नमामि यज्ञफलदं यज्ञकर्मप्रभोदकम् ॥

अजामिलोऽपि पापात्मा यन्नामोच्चारणादनु ।

प्राप्तवान्परमं धाम तं वन्दे लोकसाक्षिणम् ॥

ब्रह्माद्या अपि ये देवा यन्मायापाशयन्त्रिताः ।

न जानन्ति परं भावं तं वन्दे सर्वनायकम् ॥

हृत्पद्मनिलयोऽज्ञानां दूरस्थ इव भाति यः ।

प्रमाणातीतसद्भावं तं वन्दे ज्ञानसाक्षिणम् ॥

यन्मुखाद्ब्राह्मणो जातो बाहुभ्य़ः क्षत्रियोऽजनि ।

तथैव ऊरुतो वैश्याः पद्भ्यां शूद्रो अजायत ॥

मनसश्चन्द्रमा जातो जातः सूर्यश्च चक्षुषः ।

मुखादिन्द्रश्चाऽग्निश्च प्राणाद्वायुरजायत ॥

त्वमिन्द्रः पवनः सोमस्त्वमीशानस्त्वमन्तकः ।

त्वमग्निर्निरृतिश्चैव वरुणस्त्वं दिवाकरः ॥

देवाश्च स्थावराश्चैव पिशाचाश्चैव राक्षसाः ।

गिरयः सिद्धगन्धर्वा नद्यो भूमिश्च सागराः ॥

त्वमेव जगतामीशो यन्नामास्ति परात्परः ।

त्वद्रूपमखिलं तस्मात्पुत्रान्मे पाहि श्रीहरे ॥

इति स्तुत्वा देवधात्री देवं नत्वा पुनः पुनः ।

उवाच प्राञ्जलिर्भूत्वा हर्षाश्रुक्षालितस्तनी ॥

अनुग्राह्यास्मि देवेश हरे सर्वादिकारण ।

अकण्टकश्रियं देहि मत्सुतानां दिवौकसाम् ॥

अन्तर्यामिन् जगद्रूप सर्वभूत परेश्वर ।

तवाज्ञातं किमस्तीह किं मां मोहयसि प्रभो ॥

तथापि तव वक्ष्यामि यन्मे मनसि वर्तते ।

वृथापुत्रास्मि देवेश रक्षोभिः परिपीडिता ॥

एतन्न हन्तुमिच्छामि मत्सुता दितिजा यतः ।

तानहत्वा श्रियं देहि मत्सुतानामुवाच सा ॥

इत्युक्तो देवदेवस्तु पुनः प्रीतिमुपागतः ।

उवाच हर्षयन्साध्वीं कृपयाऽभि परिप्लुतः ॥

भगवानुवाच

प्रीतोऽस्मि देवि भद्रं ते भविष्यामि सुतस्तव ।

यतः सपत्नीतनयेष्वपि वात्सल्यशालिनी ॥

त्वया च मे कृतं स्तोत्रं पठन्ति भुवि मानवाः ।

तेषां पुत्रो धनं सम्पन्न हीयन्ते कदाचन ॥

अन्ते मत्पदमाप्नोति यद्विष्णोः परमं शुभं ।

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